!! जय गुरुदेव नाम प्रभु का !! बाबा जी का कहना है, शाकाहारी रहना है, कलियुग जा रहा है, सतयुग आ रहा है
गुरु की महिमा
गुरु की महिमा
हर सतसंगी को हिदायत है कि वह अपने सतसंगी भाइयों के साथ सच्चा और निःस्वार्थ बरताव रक्खे और अपने आपको जांचता चले कि मेरे में कोई अवगुण प्रवेश तो नहीं हो रहे हैं।
गुरु में एक चैतन्य शक्ति अग्नि के समान होती है। गुरु की आंखों से चैतन्यता की धारें निकलती रहती है जो कि तलवार भी मुकाबला नहीं कर सकती है। उन्हीं आंखों के तेज प्रकाश से सेवक के ऊपर अपनी निगाह डालकर उसकी सुरत को साफ करते हैं।
गुरु की दया के दो स्थान हैं एक तो उनकी आंखें दूसरा उनके चरण। चरनों के स्पर्श से अभिमान का त्याग होता है और सेवक के अन्दर यह भाव पैदा होता है कि गुरु की आंखों के सामने ठहर कर उनकी दया ले सके।
गुरु के पास पहुंचकर भी कुछ कानून उनकी दया के होते हैं जिनके द्वारा दया प्राप्त की जाती है।
यदि सेवक ने गुरु के नियमों का पालन भली-भांति कर लिया तो यह सत्य है दया सेवक अवश्य प्राप्त कर लेगा।
सेवक को गुरु के पास पहुंचकर सदा चुस्त चालाक रहना चाहिए। सेवक जरा भी गुरु के पास रहकर गाफिली करता है तो यह सत्य है कि गुरु की दया से खाली रहेगा।
सत्संगी जनों को आदेश है कि जहां तक बने वचनों का पालन करें।
सतसंगी की हालतें कभी कभी नाजुक गुजरने लगती हैं। ऐसी नाजुक परिस्थिति में सेवक घबरा जाता है और परमार्थ में कमी शुरु हो जाती है।
यह जरूर है कि कर्म अनुसार गुरु कुछ हालतों को पैदा इसलिए कर रहा है कि उसके कर्म कट जावें।
पर सत्संगी जनों को यह सुनाया जाता हेै कि तुमने इतने दिन जो सतसंग सुना है उसका तुम्हें क्या असर हुआ और तुमने परमार्थ के रास्ते में क्या करनी की है।
कभी कभी सत्संगी जनों की परीक्षा संसारियों के द्वारा करायी जाती है और उन्हीं के द्वारा कर्म काटने का प्रबन्ध किया जाता है।
सतसंगी जनों को जो परमार्थ में हाथ धोकर लगे हैं उन्हें सतसंग के पूर्व के कर्मों पर ध्यान देना होगा और साथ ही जिस अवस्था में अब हैं उसको भी विचार करना होगा।
सत्संगी जनों को तभी समझ में आ सकता है जब कि अपने कर्म पर विचार किया जायेगा।
गुरु की महानता सदा से रही और रहेगी। गुरु ने सतसंगी जनों को नेक पाक और पवित्र बनाया है और जो उनकी शरण में आवेंगे उन्हें भी बनाता रहेगा।
गुरु कभी नहीं चाहता कि सत्संगी जनों को कोई कष्ट हो।
गुरु जैसा पवित्र है उसी तरह पवित्र सत्संगीजनों को करना चाहता है।
सतसंगी जनों को उपदेश लेकर सदा नाम कमाई में लगे रहना चाहिए।
जहां तक हो सके और जब जब मौका मिले साधन करते रहना चाहिए।
साधक अपने अन्दर एकता का भाव उसी वक्त प्रगट कर सकता है जब कि गुरु की आज्ञा का पालन करे।
कुछ लोग ऐसे होते हैं जो कि गुरु के पास गए उपदेश लिया और कुछ साधन न किया। फिर दूसरों के पास पहुंच गए। साधक नही समझ पाता कि करनी का फल हमारे इरादे के अनुसार मिलेगा। यदि तुम्हारा इरादा सच्चा है और दृढ़ है और गुरु सच्चा मिल गया तो चिन्ता की बात नहीं। जल्दी नही करना चाहिए और दूसरों के दरबाजे पर जाना और भीख मांगना उचित न होगा।
शाही दर पर पहुंच कर इरादे के अनुसार भीख मिल जाती है।
जो रास्ता गुरु ने साधक को दिया उसकी कमाई अर्थात् साधन करना अति जरुरी है। साधन के द्वारा दया का फल प्रगट होता है।
चेतावनी
सतसंगियों, यह दुनिया है इन्हे अपने कर्म अनुसार इन्हीं भोग योनियों में रहना है। उन्हीं नीच योनियों में जाने का कर्म करते हैं। अभी कहने से मान नहीं रहे हैं आगे उन्हें पछताना होगा।
साधन करने वाले प्रेमी जनों को आदेश दिया जाता है कि सदा सुरत के जगाने वाले साध में लगे रहें और दुनिया की कार्यवाही कम कर दें ताकि ज्यादा फंसाव न होन पावे।
अपना अमूल्य वक्त साधन में लगाकर शब्द मार्ग के साधन में लगे रहो जीवन के अन्त समय तक तुम अपना सच्चा मित्र शब्द को पकड़ लो।
जीव अपनी सफलता से अपने आपको भूल चुका है। जब तक इसे गुरु सहारा न देगा तब तक जागना नहीं हो सकता है।
अपने कर्म पर विश्वास नहीं करना चाहिए। कारण भी हो सकता है कि हम कर्म अपनी भूल से बुरे करते हों और हमारी सुरत बजाय पवित्र होने के गन्दी होती चली जाती हो।
गुरु हिदायत से प्रेमी को कर्म करना चाहिए। गुरु समझता है कि किस भाव से जीव कर्म करेगा तो इसका यहां फंसना यानी कर्म में बन्धन नहीं होगा।
रचना रहस्य
कर्म रहस्य अति सूक्ष्म और बहुत अधिक बारीक है। इसे समझना असम्भव है। हां यदि महापुरुषों की कृपा रही तो समझ सकता है।
कर्मों के बस होकर जीव अनादि काल से नट की तरह नाच रहा है।
कर्म और अकर्म
कर्म वासनाओं के आधार पर होते हैं। जैसी जिसकी वासनायें वैसा ही कर्म अपनी इन्द्रिय द्वारा करेगा और फिर उसका भोक्ता बनेगा।
अकर्म आंखों के ऊपर है। यदि शरीर कर्म से छुटकारा पाना चाहते हो तो गुरु के पास पहुंचकर आंखों के ऊपर जो रास्ता सुरत के जगाने का है, जहां पर सुरत को होश दिलाया जाता है, उस अवस्था में पहुंचकर कर्म कट जाते हैं। और सुरत अकर्म गति प्राप्त कर लेती है।
ऐसी अकर्म गति बगैर महान आत्माओं के प्राप्त नहीं होती है।
शरीर कर्म का बन्धन सदा से चला आता है। और हम इतने ज्यादा अभ्यस्त शरीर मोह के हो गए हैं कि इसे छोड़ना भी पसन्द नही करते हैं। मुझे तो इसका बहुत दुख है।