हम सब भारतीय हैं और भारतीय होने के नाते हमारी अपनी भाषा, खानपान और पहनावा है। लेकिन हमने अपनी भाषा, भूषा और भोजन को बिसार कर पश्चिमी सभ्यता अपना लिए जिसके कारण हम चिरकाल से दुखी हैं। अगर सुखी होना चाहते हैं तो हमें अंग्रेजियत छोड़ना होगा और भारतीयता अपनाना होगा।
• सनातन
• भारतीयता
• अध्याय १ – भारतवासियों की पहचान
• अध्याय २ – उत्तर प्रदेश भारतीयता की नींव
• अध्याय ३ – भारतीय पुरुष की पहचान
• अध्याय ४ – भारतीय नारी की पहचान
• अध्याय ५ – शब्दों का भावार्थ
आदि और अंत को ही सनातन कहते हैं। यानी समस्त सृष्टि का पसार कैसे हुआ और सिमटाव कैसे होगा इसे ही सनातन कहते हैं। सनातन को ही संत मत कहते हैं।
आदि यानी की रचना और सृष्टि विस्तार शब्द पर हुआ है। शब्द की धार से ही सारी सृष्टि की रचना हुई है। और अंत यानी सिमटाव भी शब्द के द्वारा ही होगा।
अनामी महाप्रभु ने ही शब्द के आधार पर अगम लोक, अलख लोक और सतलोक की रचना की है। फिर सतलोक से सत्तपुरुष ने शब्द पर 16 पुरुषों की रचना की और चार लोक बनाकर उन्हें दे दिया। कारण लोक, सूक्ष्म लोक, लिंग लोक और स्थूल लोक जिसे मृत्युलोक मंडल कहते हैं जहां हम सब रहते हैं।
अनामी महाप्रभु ही सतगुरु और सत्तपुरुष का रूप धारण किए। तथा सतलोक के नीचे सारे मंडलों से होते हुए धरती पर गुरु रूप में आए और मौन हो गए।
सत्तपुरुष ने सतलोक से दो धारें जारी की। एक मनु और एक सतरूपा जिनसे उपजी सृष्टि अनूपा। मनु यानी पुरुष खोल, सतरूपा यानी स्त्री खोल। इन्हीं दोनों ने अपने योग से सृष्टि की रचना करते हुए धरती पर पुरुष खोल और स्त्री खोल धारण किया। तथा यही दोनों शब्द के आधार पर सृष्टि का सिमटाव करेंगे। जिसने सृष्टि पसारी है वही सिमटाव करेगा।
सत्तपुरुष ने जब इन दोनों को भेजा तो इन पर तीन तीन ऋण डाल दिए। पुरुष के तीन ऋण माता, पिता और गुरु की सेवा । स्त्री के तीन ऋण सास ससुर और पति की सेवा। अब जब तक ये अपना ऋण नहीं चुकाते तब तक ये वापिस अपने घर सतलोक नहीं जा सकते हैं।
रचना होने के बाद गुरु सारी जानकारी देते रहें, पर किसी ने गुरु को माना नहीं और लिंग लोक से लेकर कारण लोक तक तमाम छोटी बड़ी शक्तियां धरती पर आईं और यहां की व्यवस्था को बिगाड़ दिया। लिंग लोक के विष्णु से लेकर कारण लोक के कृष्ण तक सारी शक्तियों ने धरती की व्यवस्था बिल्कुल खराब कर दी। जब सुधार की कोई उम्मीद नहीं बची तब सतलोक से संत आए अपनी जीवात्माओं को वापिस घर पहुंचाने के लिए। जीव माने पुरुष, आत्मा माने स्त्री। संत ही सनातन हैं, सत्य हैं और वो चार युगों (सतयुग, त्रेता, द्वापर, कलियुग) में से कलियुग में आए।
सर्वप्रथम शब्द की नींव कबीर साहब ने इस कलियुग में रखी जीवों को वापिस घर पहुंचाने के लिए। उन्होंने शब्द का ढोल बजाकर सब जीवों को जगाने का काम किया। शब्द से सिमटाव का प्रचार इन्होंने हर जगह किया। इन्होंने ही सतलोक से रचना की और अब सिमटाव भी यही करेंगे। कबीर साहब ही अपना चोला बदल बदल कर 750 वर्षों से जीवों को जगा रहे हैं। शब्द का भेद बता रहे हैं। वही नानक, रैदास, नाभा, पलटू, गोस्वामी, राधास्वामी बनकर आए। लेकिन किसी ने उनकी बात नहीं मानी।
जब व्यवस्था बिल्कुल चरमरा गई, अब आगे नहीं चल सकती तब अनामी धाम से अनामी महाप्रभु परम संत का रूप लेकर खुद ही आ गए अपने जीवों को घर ले जाने के लिए। धरती पर परम संत के रूप में बाबा जय गुरुदेव जी आए और जयगुरुदेव प्रभु नाम को जगाया। पूरे भूमंडल पर प्रभु नाम का प्रचार कराया। प्रभु नाम इनके पहले कभी नहीं आया था। प्रभु ही सारी जीवात्माओं के कुल मालिक और समरथ पिता हैं। वे इस धरती पर प्रकट रूप में आए हैं और सारे जीवों से वादा किया है कि मैं अपनी सारी जीवात्माओं को जगाऊंगा, परमात्मा से मिलाऊंगा और अपने जयगुरुदेव शब्द जहाज पर बैठाकर सबको घर पहुंचाऊंगा। जब तक मैं ये काम नहीं कर लूंगा तब तक मैं धरा से जाने वाला नहीं हूं। चाहे उसके लिए मुझे कोई खेल करना पड़े।
बाबा जय गुरुदेव जी का एक ही उद्देश्य है, सारी जीवात्माओं को सतलोक सचखंड अनामी धाम प्रभु धाम पहुंचाना।
सनातन की भाषा बहुत भोली भाली सरल एवं सहज है। जिसको सारे जीव समझते हैं।
सनातन का मतलब धरती पर रहकर गृहस्थ आश्रम के सारे क्रिया कलाप करते हुए, सबका ऋण चुकाते हुए, शब्द की कमाई करते हुए अपने आप को समेट कर अपने निज घर पहुंच जाना। इसी काम के लिए संत और सतगुरु धरा पर आते हैं। जयगुरुदेव
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भारतीयता सनातन मत (संत मत) की एक शाखा है। यह एक समृद्ध विचार है जो भारतीयों में होता है।
जो भारत भूमि पर रहने वाले मूल निवासी हैं, वो ही भारतीय हैं।
ऐसी भूमि जहां के लोग भाव में रत हों, भक्ति करने वाले और प्रेम मय हों।
जिनके अंदर प्रेम हो, सेवा, दया, सदाचार हो और परमात्मा को याद करते हों, जिनके हृदय में मां बहन बहू बेटी की सच्ची परख और पहचान हों। ये भारतीय लोगों की पहचान है। इन्हें हिंदुस्तानी भी कहते हैं।
ये शब्द पश्चिम एशियाई लोगों द्वारा भारतीयों के लिए कहा गया है। इसका मतलब होता है हिंदुओं का स्थान।
ऐसे लोग जो सिंधु श्रोत हिमालय से महासागर तक की भूमि पर रहते हैं। जो हिंसा से दूर हैं और अपने प्रेम बानी के प्रभाव से दूसरों को भी हिंसा से मुक्त करते हैं।
जो काम क्रोध लोभ मोह अहंकार रूपी हिंसा से दूर रहते हैं। जिनके अंदर किसी भी प्रकार की ईर्ष्या घृणा राग द्वेष की भावना नहीं होती है। जो किसी को शारीरिक एवं मानसिक रूप से कष्ट नहीं देते। ऐसे लोग स्वयं हिंसा से मुक्त होते हैं तथा औरों को भी मुक्त कराते हैं। संत ही सच्चे हिन्दू हैं।
हिंदू कोई जाति मजहब धर्म और सप्रदाय नहीं है। हिंदू एक सनातन गुण है जो हर मनुष्य के अंदर होता है। हम सबने ये गुण बिसार दिया इसलिए सब दुखी हैं।
जो अपनी मुंह की बात सलामत रखे वो मुसलमान है यानी जो जुबान का पक्का हो, जो कहता हो वो करता हो।
जो अपने गुरु की सीख को माने वो सिक्ख हैं।
ये सब मनुष्य के गुण हैं, जिससे समाज बनता है। ये कोई जाति और धर्म नहीं है। जबकि इन्हीं गुणों के भंडार को हिंदू कहते हैं। जाति का मतलब विशेष गुण। धर्म का मतलब जिसे धारण किया जाए। जैसे सत्य न्याय शील क्षमा दया संतोष विरह विवेक को अपने अंदर धारण करना धर्म है।
भारतीय सरल हृदय वाले होते हैं। वे छल कपट चतुराई हिंसा और विषय वासना से मुक्त होते हैं। उनकी बानी में इतनी मिठास होती है कि सब उनकी तरफ खिंचे चले आते हैं। उनका आचार विचार और व्यवहार बड़ा सरल और समझने योग्य होता है। वैसे उनकी पहचान के तीन आधार हैं :-
भाषा शब्द ‘भाख’ शब्द से आया है जिसका अर्थ है भाखना या बोलना।
उनकी भाषा सबसे सरल और सहज होती है जिसे हर इंसान समझ सकता है। क्योंकि वो भारत भूमि के निवासी है इसलिए आधी बात वो भावना (इशारा) से ही कह देते हैं। यद्यपि भारत भूमि सर्व गुण संपन्न है, सारे गुणों और सुखों की खान है इसलिए यहां व्यक्त करने का तरीका भी उतना ही ज्यादा है।
यहां की आम भाषा जो सब बोलते हैं वो संस्कृत है, वर्तमान में इसको हिंदी नाम दिया गया है।
संस्कृत एक संस्कारी भाषा है जो भारत भूमि की संस्कृति और सभ्यता को दिखलाती है। संसार की सभी बोली व भाषाओं की जननी संस्कृत ही है। इसे देव वाणी, वेद वाणी भी कहते हैं। जब से हिंद नाम आया तब से संस्कृत को ही हिंदी कहा जाने लगा। हिंदी मतलब हिंद देश में बोली जाने वाली भाषा।
संस्कृत ही आदि भाषा है जिसके असंख गुण है। आगे इस भाषा में तमाम मिलावट करके इसे लुप्त कर दिया गया। किंतु जो मिलावट से बचे रहे वे भारतीय आज भी सबसे सरल बानी बोलते हैं, और वो सबकी समझ में आती है।
भूषा का मतलब इस मानुष शरीर को चमक देना।
उषा माने सुबह के सूरज का प्रकाश मतलब शरीर रूपी धरती को वस्त्र रूपी उजाले से प्रकाशित करना, चमक देना
इसलिए भारत वासियों की वेश भूषा और पहिनावा सबसे निराला और आकर्षक है। क्योंकि ये उजले कपड़े पहिनते हैं। इनका पहनावा एक विशेष पहचान देता है। भारतवासी प्रकृति पर निर्भर रहते हैं। वो अपने धरती मां और आकाशीय पिता से प्रगाढ़ प्रेम करते हैं एवं उनकी पूजा वंदना करते हैं। इसलिए यहां के वासी अपने क्षेत्र और प्रकृति के अनुसार कपड़े पहिनते हैं।
भारतवासी द्विलिंगी हैं अर्थात एक पुरुष और उसके सहयोग के लिए स्त्री। इन दोनों के पहनावे में ज्यादा अंतर नहीं है।
पुरुष का मतलब पुरुषार्थ से है यानी मर्दानगी, सूरवीर और हिम्मत वाला स्त्री का मतलब स्थिर से है यानी अविचल और सहनशील, इसको अंगना भी बोलते हैं क्योंकि ये पुरुष के अंग संग रहकर उसका सहयोग करती है।
इसलिए यहां पुरुष मर्दानी पहनता है। मर्दानी मतलब धौत या धोती और नारियां भी धोती ही पहनती हैं जिसे आज साड़ी बोला जाता है। धोती एक बिना सिला हुआ कपड़ा होता है जिसे आमतौर पर कमर के नीचे अंगों को ढकने के लिए पहना जाता है।
भारत भौतिक और आध्यात्मिक रूप से एक समृद्धशाली देश है इसलिए यहां क्षेत्र और प्रकृति के अनुसार तरह तरह के वेश भूषा धारण किए जाते हैं। किंतु समानता वाले वस्त्र इस प्रकार हैं –
धोती – कुर्ता, पैजामा – कुर्ता, पगड़ी एवं लंगोटी
धोती – कुर्ती, साड़ी – कुर्ती, पैजामा – कुर्ता, स्तन पट्टी एवं लंगोटी
भोजन का मतलब खान पान से है यानी क्या खाते और पीते हैं। इसे आहार भी बोलते हैं। मनुष्य शरीर को चलाने के लिए प्राकृतिक भोजन ग्रहण करते हैं।
भारतीयों का भोजन सादा, तरलयुक्त एवं सुपाच्य है। क्षेत्र और मौसम के अनुसार जैसे अनाज, दालें, सब्जियां, फल फूल, मेवे, घी, दूध, माखन आदि।
भारत सबसे बड़ा भोज भंडार है अर्थात यहां प्रकृति के अनुसार तरह तरह के आहार मिल जाते है। ऐसी समृद्धि और विश्व में कहीं नहीं है। धरती मां यहां के लोगों को इतना दे देती है कि कभी कमी नहीं होती इसलिए उन्हें अन्नपूर्णा भी कहा गया है। लेकिन आज इंसानों के द्वारा धरती की अवहेलना की सारी सीमाएं टूट गई इसलिए धरती मां ने अपने आंचल में सब कुछ छुपा लिया।
भारतवासी शाकाहारी हैं। वे किसी भी जीव की हिंसा करके मांस नहीं खाते, शराब दारू गांजा भांग अफ़ीम का सेवन नहीं करते।
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भारतीयता की नींव भारतीय भूभाग के हिमालयी तलहटी मैदानी क्षेत्र में रहने वाले लोगों ने रखी है। जिसमे सम्पूर्ण उत्तर प्रदेश तथा बिहार, बंगाल, उत्तराखंड, पंजाब, हरियाणा के कुछ भाग आते हैं।
इसी भूमि से हर सनातन कार्य की शुरुआत होती है। अवतारी शक्तियां और संत महात्मा भी सबसे ज्यादा इसी भूमि पर आए हैं क्योंकि सबको मालूम है कि उत्तर प्रदेश भौतिक एवं आध्यात्मिक परिवर्तन का केंद्र बिंदु है। महापुरुषों ने भी कहा है –
इसलिए उत्तर प्रदेश को ही बदलना जरूरी है। यहां की भाषा, भूषा और भोजन को पूरा भारत अपनाता है।
• यहां की भाषा मूलतः हिंदी और संस्कृत है। जिनका साथ क्षेत्रीय भाषाएं देती हैं।
• यहां की वेश भूषा सबसे सरल और आरामदायक है। पुरुष कमर से नीचे मर्दानी बांधता है, सिर पर पगड़ी और बदन पर कुर्ता उसको शोभा देता है। उजले सूती और खादी के कपड़े यहां पहने जाते हैं। बच्चे शिशु से किशोर तक कुर्ता और पैजामा पहनते हैं, युवावस्था में धोती बांधते हैं। नारियां कमर तक की कुर्ती पहनती हैं जिससे सारा बदन उनका छिपा रहता है। उसके नीचे धोती यानी साड़ी बांधती हैं। स्तनों को बांधने के लिए स्तन पट्टी लगाती हैं। बहुत आरामदायक और ढीले वस्त्र यहां की स्त्रियां पहन कर सेवा और भजन करती हैं।
• बच्चियां युवती होने से पहले तक पैजामी और घुटने तक की कुर्ती पहनती हैं। साथ में ओढ़नी, दुपट्टा या चुनरी भी ओढ़ती हैं, उनकी सौंदर्यता की मिशाल विश्व में कहीं नहीं है।
• जब किशोरावस्था बच्चियां पार करने लगती हैं और उनके अंग उभरने लगती हैं तब वे संस्कार सहित साड़ी धारण कर लेती हैं। साड़ी का विवाह से कोई संबंध नहीं, उसका संबंध अपने अंगों को ढकना है। ताकि किसी की बुरी दृष्टि न पड़े।
• लिंगोटी सभी के लिए अनिवार्य है चाहे वो पुरुष हों या स्त्री, बच्चे हो या बच्चियां। अपनी सुविधानुसार जरूर पहनते हैं।
• इनके वस्त्रों में रंगीन सजावट नहीं होती ये सादा ही पहनते हैं जिसकी चमक निराली है।
• यहां का खानपान ऋतु आहार पर निर्भर करता है। यानी ऋतु के अनुसार ये अनाज, दालें, तिल, तेल, सब्जियां, फल फूल पत्तियां, दूध, घी, माखन एवं अन्य कई तरीकों के भोजन अपनी संस्कृति और सभ्यता के अनुसार ग्रहण करते हैं।
• इनका खानपान सात्विक होता है। यानी जिसके खाने से बुरे विकार न पैदा हों, भोग विषय वासना न आवे, तेल तला, मिर्च, मसाले, राजसी एवं तामसी भोजन नहीं करते हैं।
• ये योग भूमि के वासी है। सारे संसार को योग सिखाते हैं।
• इनका सिद्धांत है, जैसा करे आहार वैसे बने विचार और जैसा पीवे पानी वैसी होवे बानी।
• इनका जीवन सादगी से भरपूर है। ये कहते हैं – सादा जीवन उच्च विचार, ये है उन्नति का आधार ।
• पुरुष – पु = पूरे, रु= रूह (सुरत), श= शब्द जो अपनी सुरत को शब्द में मिलाकर पूरा हो गया है, वो पुरुष है।
• पुरुष का मतलब पुरुषार्थ से है। कैसा पुरुषार्थ? जिस कारण उसे मानव देह मिला है यानी अपनी आत्मा को जगाकर परमात्मा में मिला दे, ऐसी हिम्मत और सूरमा वाले काम को पुरुषार्थी कहते हैं।
• पुरुष अपने माता पिता और गुरु की सेवा तथा भक्ति करते हैं। यही उनकी नींव है। वे गुरुभक्त होते हैं और अपने गुरु के आदेशानुसार अपना जीवन परमार्थ में लगाते हैं।
• वे बचपन और किशोरा में गुरु की शरण जाकर गुरुकुल में भौतिक एवं आध्यात्मिक ज्ञान लेते हैं। जब हर तरीके से सयाने हो जाते हैं तब गुरु की आज्ञा पाकर गृहस्थ आश्रम धारण करते हैं।
• परिवार के भरण पोषण के लिए मेहनत ईमानदारी से खेती बारी, व्यापार, मजदूरी करते हैं।
• अपने घर गृहस्थी के सहयोग के लिए योग्य सतोगुणी स्त्री से विवाह करते हैं। एवं जरूरत पड़ने पर अपना वंश बढ़ाने के लिए अच्छी संतान को जन्म देते हैं।
• भारतीय पुरुष शाकाहारी, सदाचारी, ब्रह्मचारी होते हैं। संयम के पक्के होते हैं। केवल संतान उत्पन्न करने के लिए ही अपनी अमोलक शक्ति खर्च करते हैं नहीं तो उस तत्व को इकट्ठा करके नाम की कमाई में लगाते हैं।
• वे बहुत सरल हृदय वाले, सब जीवों पर दया करने वाले और सबसे प्रेम करने वाले होते हैं।
• वे काम क्रोध लोभ मोह अहंकार जैसे शत्रुओं का हनन करते हैं और उसके जगह शील क्षमा दया संतोष विरह विवेक को धारण करते हैं। वे भोगी नहीं होते और न ही भोग वासना की कामना करते हैं। वे योगी होते हैं और सदा नाम की कमाई में लगे रहते हैं। गुरु का सत्संग करते हैं, सुनते सुनाते पढ़ते पढ़ाते नहीं हैं।
• वे हरपल गुरु के आदेश का इंतजार करते हैं और आदेश मिलने पर पूरे निष्ठा भाव से सेवा करते हैं। गुरु के बताए नाम योग की साधना बिना नागा किए आठों पहर करते हैं। यही उनके जीवन का लक्ष्य होता है।
• वे नाच गाने में शामिल नहीं होते और न ही नाचते और गाते हैं। ये काम किन्नरों और गंधर्वों का है जो पुरुष की श्रेणी में नहीं आते।
• वे भौतिक जगत का संगीत नहीं सुनते क्योंकि उसके सुनने से आत्मा के कान पर पर्दा (मैल) चढ़ जाता है। वे आत्मा के घाट पर बैठकर आठों पहर ऊपर के मंडलों की ध्वनि सुनते हैं जिसकी मिसाल यहां धरती पर नहीं है। वे भौतिक जगत का काम भी करते रहते हैं और अपनी आत्मा से नाम धुनि भी सुनकर तृप्त होते रहते हैं।
• जिस तरह से यहां शरीर की खुराक भोजन है उसी तरह उनके आत्मा की खुराक शब्द अमीय रस है जो 24 घंटे घट में चू रहा है, वे उसी शब्द का आहार करते हैं।
• वे भौतिक जगत का सिनेमा नहीं देखते हैं, इससे 83% गंदगी आत्मा की आंख पर चढ़ती है। वे नाम की कमाई करते हुए अंतर के दिव्य मंडलों का दृश्य देखते हैं जिसकी कोई उपमा नहीं है।
• वे बहिरमुखी नहीं है, अंतर्मुखी हैं। भले ही वे समाज और परिवार का भौतिक कार्य करते हैं किंतु उनका ध्यान सदा अंतर में लगा रहता है।
• वे बाहर में कोई प्रार्थना नहीं बोलते, ऐसे गुरु के विरही भक्त आत्मा के घाट पर बैठकर अपने गुरु से फरियाद पुकार करते हैं जिसे केवल उनके सतगुरु सुनते हैं, दुनिया वाले नहीं सुन पाते।
• वे अपने आप में दिखावट सजावट नहीं करते, वे जो कहते हैं वो ही करते हैं, इसलिए उन्हें मर्द भी कहा जाता है जो अपनी जुबान का पक्का हो।
• वे अपने गुरु के लिए हमेशा कुर्बान रहते हैं। और माता पिता की आज्ञा का पालन करते हैं। बाल बच्चों की खिदमत सेवा करते हैं।
• उनकी वाणी बहुत कोमल और मृदुल होती है। एक अलग मिठास होती है। वे ऐसे वचन कभी नहीं बोलते जिससे मानव को कष्ट हो। वो सदा सत्य बोलते हैं, सत्य कठोर होता है लेकिन वे ऐसे बोलते हैं कि जीव को चोट भी न लगे और सही असर कर जाए।
• भारतीय पुरुष शरणागत की रक्षा करते हैं। जो उनकी शरण में आ गया उसकी सेवा करते हैं और अपनी सत्संगति से बुरे से बुरे व्यक्ति को भी सुधार देते हैं।
• वे चरित्र वान होते हैं, स्त्री पर बुरी निगाह नहीं डालते। भजन करते रहने से उनकी निगाह साफ हो जाती है। उनके अंदर शीलता शौम्यता चरित्रता निर्मलता और विनम्रता के गुण होते हैं।
• वे बाहर से बिलकुल सादा किंतु अंदर से ज्ञानी, विज्ञानी, धीर, गंभीर और विचारशील होते हैं।
• उनकी पोशाक सादगी से भरपूर सफेद रंग की होती है। उनकी पोशाक की चमक उनके चरित्र और व्यक्तित्व की पहचान देती है।
• वे सादा और सतोगुणी भोजन लेते हैं।। ज्यादा पका तेल तला, बासी, मिर्च मसाले से युक्त राजसी और तामसी भोजन नहीं खाते।
• भारतीय पुरुष किसी भी प्रकार के मद्यपान या धूम्रपान का नशा नहीं करते जिससे बुद्धि खराब होकर गलत निर्णय लेने लगे। वो शराब ताड़ी गांजा भांग दारू अफीम पान पराग बीड़ी सिगरेट को जुबान से नहीं लगाते। वो तो प्रभु नाम के नशे में डूबे रहते हैं। उनका सारा काम अंदर घट में होता है।
• वे गुण ग्राही होते हैं, किसी के अवगुण को नहीं लेते। किसी से शत्रुता की भावना, बदले की भावना नहीं रखते। सबसे प्रेम करते हैं। नाम (शब्द) और प्रेम ही उनके जीवन का सार है।
• वे बहुत सहनशील होते हैं। वे मान सम्मान के भूखे नहीं होते हैं और अपमान को बर्दास्त करने वाले होते हैं। दूसरे के द्वारा कहे गए गाली निंदा को बर्दास्त करते हैं। वो निंदक को सदा प्रणाम करते हैं उससे बैर की भावना नहीं रखते।
• वे कर्मठ होते हैं, आलसी नहीं। गुरु के आदेशानुसार कर्म करने पर विश्वास रखते हैं और नाम की कमाई करके कर्मों को जला भी देते हैं। वो गुरु के प्रसाद जैसे बीमारी, बदनामी और गरीबी को बड़े प्रेम से बिना शिकायत के धारण करते हैं। वे सदा अपने गुरु की मौज में जीवन बिताते हैं, कभी अपने गुरु से किसी चीज की शिकायत नहीं करते, संतोष करते हैं।
• जब गुरुभक्ति उनकी चरम पर पहुंच जाती है तो गुरु उन्हें अपने समान बना लेते हैं। इसलिए साध और गुरु में कोई भेद नहीं माना गया। तभी पुरुष पूर्ण हो पाता है।
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• स्त्री माने जो हर स्थिति में स्थिर हो। चंचल न हो। कैसी भी परिस्थिति आ जाए उसे सरलता से सहन कर ले।
• स्त्री धर्म और नहीं दूजा। पति और सास ससुर पद पूजा ।। स्त्री का एक ही धर्म है अपने पति और सास ससुर की सेवा करना और भजन करना।
• स्त्री, पुरुष की सेवा करने के लिए ही आई है। वो पुरुष के परमारथ में सहयोग करती है। पुरुष के सहयोग से ही वो भजन करती है। पहले सेवा फिर भजन ।
• भारतीय नारी शुद्ध हृदय वाली एवं ममता की रूप होती हैं। जिस तरीके से भौतिक में उनका सब कुछ पति ही होते हैं उसी तरह उनकी आत्मा के भी सब कुछ उनके परमेश्वर यानी सत्तपुरुष होते हैं।
• वे भौतिक और आध्यात्मिक दोनों सेवाएं करती हैं। अपने पति और परमेश्वर के आदेश का पालन करती हैं। तथा आत्मा के घाट पर बैठकर सच्ची नाम की कमाई करती हैं।
• अगर पति ने गुरु किया है, गुरुमुखी हो और गुरुभक्ति करता हो तो नारी को उसके संपर्क से ही गुरुभक्ति का पूरा लाभ मिल जाता है। • भारतीय नारी किशोरावस्था पार करके जब हर तरीके से सयानी हो जाती है तब अपने योग्य पुरुष की तलाश करती है। और उसके मिल जाने पर सदा के लिए उसके प्रति समर्पित हो जाती है। योग्य पुरुष न मिलने पर वो संसार की ठोकरें खाती है, पुरुष ही नारी को परिपूर्ण करता है। बिना पुरुष के स्त्री अधूरी है। पुरुष के सहयोग से ही वो अपने निज घर जा पाती है।
• जब तक उसे योग्य पुरुषार्थ वाला पुरुष नहीं मिल जाता तब तक वो अपने शरीर को किसी भी पुरुष से स्पर्श नहीं होने देती। इसे ही कुंवारापन का सौंदर्य कहते हैं। पराए पुरुष के स्पर्श से उसका कुंवारापन भंग होता है। इसलिए वो अपने चरित्र की सदैव रक्षा करती है।
• वो पहले अपने आप को सबसे उत्तम बनाती है। गुणों को धारण करके । कैसे गुण? शीलता, सौम्यता, चरित्रता, निर्मलता, सेवा एवं परोपकार के गुण। नाम की कमाई करते हुए वो भारतीय नारी के सारे गुण अपने अंदर उतार लेती है, तब वो अपने लिए योग्य पति का चयन करती है। उसका सही चयन ही उसके जीवन का भाग्य होता है। वो हमेशा अपने से उत्तम सतोगुनी प्रकृति के पुरुष जो गुरुभक्ति करते हों एवं नाम की कमाई करते हों, की तलाश करती है।
• भारतीय नारी की वेश भूषा सादा एवं उजला रंग का होता है। किशोरावस्था बाद वो साड़ी धारण कर लेती है। साड़ी ही उसके कौमार्यपन की रक्षा करती है। उसकी वेश भूषा इतनी पवित्र होती है कि केवल मुख मंडल का तेज ही नजर आता है। उसके सारे अंग ढंके होते हैं जिससे समाज की दृष्टि और नियत दोनों साफ रहती है।
• वो किसी भी प्रकार का भौतिक श्रृंगार नहीं करती। उसके आंतरिक गुण ही उसके श्रृंगार हैं। जिनका कौमार्य पन कुसंगति से नष्ट हो जाता है वो ही अपने आप को सुंदर दिखाने के लिए भौतिक श्रृंगार करती हैं। वो होठ पर लाली नहीं लगाती है, अपितु आंतरिक चढ़ाई करके जब त्रिकुटी धाम पहुंचती है तो खुद लाल हो जाती है। बिंदी तभी लगाती है जब उसने अपना बिंदु यानी तीसरा तिल फोड़ लिया हो। विवाह के वक्त पुरुष उसका मांग भरता है यानी अपने स्त्री की सारी मांगे पूरी करने का वचन देता है, उसकी एक ही मांग है। सबका ऋण चुकाते हुए अपने निज घर पहुंच जाना। स्त्री भी तभी सिंदूर लगाती है, जब उसने सिंध की दूरी तय कर ली हो। सिंध यानी सतलोक।
• वे मासिक धर्म के वक्त अपने साफ सफाई का बहुत ध्यान रखती है। नारी से ज्यादा शुद्ध और पवित्र कोई नहीं, यदि वो अपने आप को पवित्र बनाए रखे तो। नारी, परमात्मा की सबसे अद्भुत कला है।
• नारी की भाषा बहुत मीठी और प्रेम मय होती है, उसके अंदर छल कपट चतुराई ईर्षा राग द्वेष भोग वासना कामना आलस की बू नहीं होती है। उसके वाणी से किसी को कष्ट नहीं होता। वो किसी बड़े से जुबान नहीं लड़ाती। बड़ों का सम्मान और सेवा करती है। छोटों को पुत्रवत प्रेम करके पालन पोषण करती है।
• नारी का भोजन शुद्ध, सात्विक और सतोगुणी होता है। उसे जो मिल जाता है उसी को रसोई में बनाकर सबको खिलाती है। उसके हाथ का बनाया हुआ भोजन परसाद के समान होता है क्योंकि जब वो रसोई तैयार करती है तो साथ में अंतर में नाम जप भी करती रहती है।
• भोजन बनाते वक्त वो किसी भी चिंता, राग, द्वेष, ईर्षा, घृणा, वासना, लोभ से ग्रषित नहीं होती है। इस बात का वो विशेष ध्यान रखती है क्योंकि भोजन जिस भाव में बनाया जायेगा, खाने के बाद मन वैसा ही हो जायेगा।
• नारी को जननी भी कहते है। इसलिए वे अपने पति का वंश बढ़ाने के लिए शूरवीर और भक्त को जन्म देती हैं और उसका पालन पोषण करती हैं। • नारी विषयों से विरक्त होती हैं। चूंकि उनके अंदर काम वासना पुरुषों के 9 गुना अधिक होती है किंतु वो सहन और शीलता के प्रभाव से काम को मूर्छित कर देती है। वो शब्द कमाई करके काम क्रोध लोभ मोह अहंकार पर विजय पा लेती है। और प्रेम की मूर्ति हो जाती है।
• भारतीय नारी अपने पति की जीवन भर निश्वार्थ सेवा करती है। उनके हर हुकुम का पालन करती है। तथा पति के साथ ही सती हो जाती है। सती माने सत का रूप हो जाना। उसका अपने पति के अलावा संसार के किसी भी व्यक्ति से कोई रिश्ता नाता और लगाव नहीं होता है। नारी पति भक्त होती है लेकिन पुरुष कभी पत्नी भक्त नहीं होते, वो पत्नी के गुलाम नहीं होते। वो गुरु के भक्त होते हैं, वो गुरुमुखी होते हैं। भारतीय नारी किसी भी नाच गाना बाजा को पसंद नहीं करती। ऐसे वेश्यालय से वो कई कोस दूर रहती है। वो अपने प्रीतम के द्वारा घट में बजाए जा रहे बीन बांसुरी की धुन में मस्त हो जाती है। उसका एक ही लक्ष्य होता है, पति और सास ससुर की सेवा करना और आत्मा के घाट पर बैठकर शब्द की कमाई करना। जो नारियां इसके अलावा और कुछ करती हैं, विषय भोगों में रत रहती हैं, संसार उनको पसंद आता है, ऐसी स्त्रियां निज घर नहीं जा पाती और चौरासी के धक्के खाती है।
• भारतीय नारी अपने पति के सहयोग से अपना वंश समेट कर अपने पति के साथ सतलोक को जाती है।
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सत माने प्रभु, संग माने साक्षात्कार । जो प्रभु का साक्षात्कार कराए वो सत्संग है। सत्संग कोई नाच गाना बजाना एवं मनोरंजन नहीं है। ये आत्मा का विषय है। जीवात्मा कैसे आई और कैसे जाएगी इसका नाम है सत्संग।
ऐसी करनी जिससे वाह यानी गुरु मिल जाए उसे सेवा कहते हैं। ये चार प्रकार की होती है – तन से, मन से, धन से और आत्मा से। जो तन, मन और धन से सेवा करेंगे वो गुरु को कुछ समय के लिए भौतिक जगत में पा जाते हैं। लेकिन गुरु हमेशा इनके साथ नहीं रहते। जो आत्मा से सेवा करे यानी भजन करे उसके पास गुरु हमेशा रहते हैं। ये ही स्थायी सेवा है।
भ – भाग, ज जाओ, न नाम पकड़ के। इस काल देश से नाम पकड़ के अपने घर सतलोक भाग जाओ, इसे ही भजन कहते हैं। भजन भौतिक आंख कान का विषय नहीं, नाच गाना बाजा कीर्तन कथा प्रवचन ये भजन नहीं है। भजन आत्मा के घाट पर बैठकर किया जाता है, ऊपर से जो शब्द आ रहा है उसे पकड़ कर अपने घर जाना ही भजन है।
कंधे से लेकर घुटने के ऊपर तक का बदन ढकने वाला वस्त्र, ये लड़का और लड़की किशोर होने तक पहनते हैं। आज कुर्ता को सूट भी कहा जाता है लेकिन उससे अंग दिखते हैं, कुर्ता सूट से अलग है वो ढीला रहता है ताकि बदन में हवा प्रकाश जाता रहे।
ये नारियों का वस्त्र है जिन्होंने साड़ी या धोती पहना है, ये भी कंधे से लेकर कमर तक के सारे बदन को ढंक के रखता है। ये प्रायः सूती कपड़ा होता है। इसे आज की भाषा में ब्लाउज कहते हैं किन्तु ब्लाउज में छाती और कमर दिखती है, ब्लाउज भारतीय पहनावा नहीं है।
ये एक बिना सिला हुआ सूती कपड़ा होता है जिससे स्तनों को बांधा जाता है। ये बहुत ही आरामदायक होता है। इससे कोई बीमारी नहीं होती। आज के युग में इसकी जगह ब्रा (bra) ने ले ली है जो बीमारियों का घर है। ब्रा के अगर 5 फायदे हैं तो 100 नुकसान है जो उमर बढ़ने पर पता चल जाता है। इसलिए स्तन पट्टी की आदत किशोरावस्था से ही डालनी चाहिए।
ऐसे वस्त्र जो लिंग/भग को सुरक्षित ढंक के रखे। ये प्रायः सूती के होते है। अन्य कपड़ों से बीमारियां फैलती हैं। उत्तर भारत में इसे लंगोटी, जांघिया, अंगिया आदि कहते हैं। पेटीकोट भी इसी का हिस्सा है, लेकिन वो पैर तक घाघरे के रूप में रहता है। आज लंगोटी की जगह विदेशी कपड़ों ने ले लिया है, जिससे बीमारियां बढ़ती हैं। इसे सर्वथा त्याग देना चाहिए।
ये सबसे शुद्ध, सादा और बिना सिला हुआ सूती कपड़ा होता है। जिसे कई तरीके से बांधा जाता है। उत्तर भारत में इसे लांग करके बांधा जाता है। दक्षिण भारत में लूंगी के रूप में बांधा जाता है। अन्य प्रांतों में अलग अलग तरीके से बांधी जाती है। ये कमर से पैर तक बदन ढंकता है। ये अत्यंत ढीला, प्रवाहरत होता है। जिसमे हवा प्रकाश आसानी से पहुंच जाए। साधु महात्मा कुर्ता न पहनकर ऊपरी बदन पर भी इसी धोती को लपेटते हैं। धोती के अनगिनत फायदे हैं। नुकसान एक भी नहीं है।
धोती की जगह पैंट ने ले ली। पैंट में 1000 अवगुण हैं। पुरुष की आधी बीमारियों का जड़ पैंट है। पैंट और पैजामा में अंतर है। पैंट का कपड़ा मोटा, जांघो पर कसा हुआ, बैठने में कस जाता है, गुप्तांगों पर दबाव पड़ता है। जिससे नपुंसकता बढ़ती है। पैजामा पैंट के जैसा ही लेकिन जांघो पर ढीला, हल्का सूती वस्त्र, बैठने में कोई दिक्कत नहीं, गुप्तांगों पर कोई दबाव नहीं तथा हवा प्रकाश जाने में सुलभ होता है।
नारियां भी धोती ही पहनती हैं जिसे आज साड़ी कहा जाता है। विश्व में साड़ी ही एक ऐसा वस्त्र है जो नारी को सिर से लेकर पैर तक सुंदर तरीके से ढंकता है। इस वस्त्र से कोई भोग भावना नहीं जागती। साड़ी भी सूती का ही अच्छा है। अन्य कपड़े राजसी और तामसी वर्ग में आते हैं जिससे मन में अहंकार और विकार पैदा होता है। साड़ी को भी भारत में कई तरीके से बांधा जाता है। बच्चियां किशोरावस्था पार करने पर साड़ी पहनने को लालायित रहती हैं। साड़ी भारतीय नारी की मूल पोशाक है। जिसके पहनने के बाद कोई अंग नहीं दिखते। रेशमी साड़ी राजसी और भोग भावना से युक्त है। पतिव्रता नारियां की साड़ी ही सदा पहनती हैं।
सूती आज के युग में साड़ी की जगह महिलाएं सूट सलवार भी पहनती हैं, और अपने आप को शिक्षित गर्वित महसूस करती हैं। किंतु उनके ऐसे पोशाकों से भोगों की बू आती है। उनके उभरे अंगों को देखकर समाज में मानसिक हिंसा अधिक फैलती है। सूट भी इतना पारदर्शी पहनेंगी की अंदर के सारे अंग दिखाई देते हैं। उनको ये वस्त्र पहनने का मुख्य उद्देश्य अपने अंगों को दिखाना मात्र है। इनके ऊपर पश्चिमी सभ्यता का भूत सवार है जो भारतीय समाज को गंदा करते हैं।
पगड़ी सिर का ताज होता है। इसको इस तरीके से बांधा जाता है जो हर स्थिति में अड़ी रहे। सिर को हमेशा ढंक कर रखना चाहिए ये मनुष्य का ब्रम्हांड है जिसमें प्रभु विराजमान है। पगड़ी बांधने से बुद्धि और विवेक सही दिशा में काम करती है। घर से बाहर निकलने पर सिर ढंक के ही जाया जाता है। इसकी जगह गमछा, साफा, टोपी आदि भी भारतीय पहनते हैं। किशोरी को दुपट्टा या चुनरी सिर पर रखना चाहिए।
इसका मतलब पैर में पहनने वाला जामा यानी कपड़ा । ये मध्यम ढीला आकार का कपड़ा होता है जो कमर से पैर तक ढंकता है। पैर की मोहरी चौड़ी होती है ताकि चलने पर हवा अंदर प्रवेश करे। इसको किशोर और किशोरी दोनों पहनते हैं। पश्चिमी एशिया में मुसलमान वर्ग चिपकी मोहरी पहनते हैं ताकि वहां के रेतीले धूल और गर्मी अंदर न जाए उसे सलवार भी कहते हैं। मुसलमानों और भारतीयों के कुर्ते पैजामा में बहुत अंतर है। हर क्षेत्र का अलग पैजामा है। इसलिए हमें अपने क्षेत्रीय वेश भूषा को धारण करना चाहिए।
आज पैजामे की जगह पैंट / लेगिंग्स ने ले लिया है। जिसके कपड़े त्वचा के लिए हानिकारक होते हैं।
ये टाइट और चिपके हुए पश्चिमी सभ्यता के वस्त्र होते हैं जिसमें पुरुष और स्त्री दोनों के अंग उभरे हुए दिखते हैं जिसका परिणाम भोग भावना से शुरू होकर दुष्कर्म तक पहुंच जाता है। पैंट के जैसा एक जींस कपड़ा होता है जो सबसे खराब होता है, ये त्वचा, नसों, गुप्तांगों, पेट, हड्डी, मस्तिष्क एवं पैरों की बीमारियों का मूल है। भारतीय स्त्री पुरुषों को ये सदा के लिए त्याग देना चाहिए।
अगर आप सच्चे भारतीय बनना चाहते हैं तो इन गुणों को अपने अंदर उतारिए एवं अन्य भारतवासियों से भी इस पुस्तिका का लेख साझा करिए। इसको छपवाकर अपने घर में एक प्रति जरूर रखिए। पुस्तिका का डाउनलोड लिंक नीचे हैं। जयगुरुदेव नाम प्रभु का