!! जय गुरुदेव नाम प्रभु का !! बाबा जी का कहना है, शाकाहारी रहना है, कलियुग जा रहा है, सतयुग आ रहा है
सतसंगी के कर्तव्य
स्वामी जी की डायरी के पन्ने :: सतसंगी के कर्तव्य
हर सतसंगी को हिदायत है कि वह अपने सतसंगी भाइयों के साथ सच्चा और निःस्वार्थ बरताव रक्खे और अपने आपको जांचता चले कि मेरे में कोई अवगुण प्रवेश तो नहीं हो रहे हैं।
सच्चाई का रास्ता सतसंगी के लिए सुलभ होगा, साधन के वक्त साधक को चिंता नहीं व्यापेगी।
साधन करते वक्त साधक मन तरंग के साथ उड़ने लगता है और जहां भोगों की वासनायें लगा रक्खी हैं वहां विचरता रहता है।
साधन करते वक्त साधक यदि समय की खाना पुरी करेगा तो उसका साधन कभी नहीं बनेगा गुरु साधन के साथी हैं, न कि वासना के।
वासनाओं का गुबार साधक के अन्तर में मौजूद है।
एक साधक जो कभी सिनेमा नहीं जाता है परन्तु संगत में फंसकर सिनेमा देखने चला गया और असर यह हुआ कि साधक ने साधना करना छोड़ दिया। और कुछ ही दिन बाद बदकारी में फंसकर अपने आप को पतन कर दिया।
साधक को हमेशा बुरी संगति से दूर रहना अति आवश्यक है ताकि साधक के अन्दर बुरी संगति का असर न हो।
देखने में आता है कि बुरी संगति का असर जल्द हो जाता है। इसका कारण यह है कि संसार के कर्म करने का महावरा पुराना पड़ा हुआ है, और परमार्थ की बुनियाद मुद्दत से छूट चुकी है। इसी कारण परमार्थ पर कदम नहीं होता।
अब साधक सुन सुना कर सतसंग में पहुंचता है यदि पूर्व की खोज साधक के अन्दर परमार्थ की हो तो साधक गुरु के पास पहुंचकर अपना कुछ काम बना सकता है।
आंखे बहुत खराब हैं। इनकी निगरानी बुद्धि कर सकती है। यदि बुद्धि मलीन है तो आंखे किसी सूरत में साधक काबू में नहीं ला सकता है। दुनियां के लोग आंखों से परेशान हैं। यही आंखें हैं जो माता, पिता, बहन बहू का भेदभाव नही आने देती हैं। सर्व एक रस निगाह हो चुकी है । अब आत्मज्ञानियों की तरह लोग अभेद के कर्म करने लगे।
समाज का स्तर इसी कारण गिर चुका है।
जब साधक गुरु के पास पहुंचता है तो गुरु यह देखता तो है कि इसके स्वभाव कैसे हैं, गुरु साधक को पहिचानता है कि कौन कौन सी इन्द्रिय इसकी ज्यादा चंचल है। गुरु उसी चंचलता का आदेश देते हैं।
मन स्थिर हो और बाद में जब साधक साधन पर बैठे तो सुरत निरत भी स्थिर होना चाहिए तब कहीं अन्तर की आंख खुलेगी।
अब साधन पर फिर जाओ। सुरत ने अन्तर में प्रकाश पा लिया और चरनों का साक्षात्कार हुआ, उस साधक के अन्दर एक इस तरह की स्फूर्ति आती है और अपने आप को समझने लगता है कि मैं तन नहीं, धन नहीं, बुद्धि नहीं और कोई सामान नहीं हूं मैं एक आत्मा हूं, मेरा रूप सत चित्त, स्वरूप है मैं इन सबका दृष्टा यानी चलाने वाला हूं मैं अलिप्त हूं अजन्मा हूं और मेरा रूप सब में समाया है यानी मैं सब जगह हूं। आत्मज्ञान इसी को कहते हैं।
साधक को समझाया जाता है कि यह अन्धी माया है। इसने साधक के सुरत के ऊपर पर्दा डाल रखा है।
जब तक साधक में पूर्ण अंग लेकर विरह उत्पन्न नहीं होगी तब तक यह अन्धी माया, आकाश नीला है जिसमें चरन खिले हैं, नहीं टूटेगा।
साधक को तड़प के साथ रोना होगा। जब रोयेगा नहीं तब तक बज्र फाटक यानी परदा नहीं टूटेगा। इसी को कबीर साहब ने कहा है-
*बिन रोये नहीं पाइया साहब का दीदार।*
इसी का जिक्र गोस्वामी जी ने किया है कि यह जड़ चेतन की ग्रन्थि जीव के साथ बंधी है। इसी के टूट जाने पर कहा गया है कि-
*छोरत ग्रन्थि पाव जो कोई, तब यह जीव कृतारथ होई।।*
साधक गुरु का पूरा बल और सहारा लेकर साधन करना शुरु करदे और अपना इम्तहान कराता चले।
साधक का इम्तहान गुरु ही लेंगे। और किसी की हस्ती नहीं जो साधक का इम्तहान ले।
गुरु हर प्रकार समरथ है।
जब साधक की दिव्य आंख खुल जाती है और चरनों का दर्शन होता है तब साधक गुरु को याद करता है, उसी समय गुरु उन्हीं चरनों में होकर नजर आते हैं। तब साधक अपने को धन्य धन्य कहता है और कुछ कुछ गुरु की महिमा का आभास होना शुरु हो जाता है।
गुरु चरनों में अपनी सुरत जोड़े रहना चाहिए। यह वह वटवृक्ष है जो सर्व वासना पूरी करता है। इसकी शीतल छाया में पहुंचकर सुख और अद्भुत आनन्द प्राप्त होता है।
यही चरन है जिसमें होकर हम अपना रूप देखते हैं, बाद इन्हीं चरनों के आधार से ज्योति का दर्शन होता है। इन्ही चरनों की मदद से हमारी सुरत सूर्यलोक, चन्द्रलोक, बैकुण्ठलोक, गन्धर्वलोक, इन्द्रपुरी, शक्तिलोक आदि सूक्ष्म देशों में जाती है।
यदि साधक वासना को त्याग कर नित्य साधना करे तो गुरु कृपा से इन लोकों में महीना दो महीना में जा सकता है।
सहारा तो साधक को गुरु का पूरा होगा उसकी मदद बगैर साधक एक तिल भी आगे काम नहीं कर सकता है।
साधकों को इस साधन में तनिक भी अभिमान नहीं करना चाहिए।
यदि साधक साधना करते समय दूसरों की सेवा करता चले तो अति सुन्दर होगा।
दीनता का पथ साधक के लिए लाभकारी होगा।
साधक भाव की दृढ़ता साधक में ज्यादा होनी चाहिए। साधक सर्वदा गुरु का सहारा लेता चले।
साधक अपने स्वांस को किसी अनीत काम में खर्च न करे क्योंकि कर्म का असर आ गया तो मन मैला होगा और साधना में विघ्न होगा।
जो साधक बगैर गुरु के आत्मज्ञान अनुभव करना चाहे तो यह कदापि नहीं होगा।
यदि किसी साधक ने बगैर गुरु के आत्मअनुभव किया हो उसे हमारे सामने लाओ तब सही सत्य माना जा सकेगा। वरना तुम्हारा कहना गलत होगा।
आत्म साक्षात्कार के लिए जिज्ञासु को अपना तन, मन, वचन बेचना होगा और इस तन, मन को खरीदने वाला भी होना चाहिए।
जब साधक को चरनों का साक्षात्कार होता है उसी समय अन्तर में ध्वनि सुनाई देने लगे और ध्वनि के अन्दर से रस आने लगे उस साधक को अधिकार है कि जिसको ज्यादा पसन्द करे उसी में अपनी सुरत रत कर दे।
साधक को चाहिए कि जिधर से ध्वनि आती हो उसी तरह अपना तवज्जह ले चले और लगातार सुनने का महावरा डाले। जैसे-जैसे ध्वनि आती जावे वैसे वैसे सुरत साफ होती जावेगी।
सुरत को शब्द, नाम धुनि के साथ जोड़ना और साथ-साथ वासना की ओर से अपना मन हटाना।
जब साधक की वासनायें जो संसारी हैं उनकी तरफ से कमी होगी उसी कदर शब्द आहिस्ता आहिस्ता अपनी सुरत को ऊपर खीचेगा।
शब्द चैतन्य है सुरत को तौलता रहता है। जिस वक्त व जिस दिन सुरत को अपने लायक कर लेगा उसी दिन तुरन्त सुरत को खींचकर ऊपर के दिव्य लोक में पहुंचा देगा। आंखों के ऊपर दिव्य लोकों का रास्ता शुरु होता है।
ऊपर की ओर तुम अपनी आंखों को करो और संसार की ओर से अपना ध्यान हटाओ तब तुम्हें शब्द सुनाई देगा।
यह तो साधन तीसरे तिल पर पहुंचने का है जो गुरु कृपा से ही प्राप्त होगा।