एक बार वशिष्ठ जी और विश्वामित्र जी में बहस छिड़ गयी की सत्संग की महिमा बड़ी है या तप की महिमा| वशिष्ठ जी का कहना था सत्संग की महिमा बड़ी है, तथा विश्वामित्र जी का कहना था कि तप का महात्म बड़ा है| जब फैसला न हो सका तो दोनों विष्णु भगवान के पास पहुंचे और अपनी-अपनी बात कही|
विष्णु भगवान ने सोचा की दोनों ही महर्षि है और दोनों ही अपनी-अपनी बात पर अड़े है| उन्होंने कहा कि शंकर भगवान ही इसका सही उत्तर दे सकते है अतः दोनों शंकर भगवान के पास पहुंचे| शंकर जी के सामने भी यही समस्या आई| उन्होंने कहा कि मेरे मस्तक पर इस समय जटाजूट का भार है| अतः मैं सही निर्णय नहीं कर पाउँगा | आप लोग शेषनाग के पास जाय, वो ही सही फैसला कर सकेंगे|
दोनों महर्षि शेषनाग के पास पहुंचे और अपनी बात उनसे कही| शेषनाग जी ने कहा कि ऋषिवर! मेरे सिर पर धरती का भार है| आप थोड़ी देर के लिए मेरे सिर से धरती को हटा दे तो में फैसला कर दू |
विश्वामित्र ने कहा कि धरती माता तुम शेषनाग जी के सर से थोड़ी देर के लिए अलग हो जाओ, मैं अपने तप का चौथाई फल आपको देता हूँ| पृथ्वी में कोई हलचल नहीं हुई तो फिर उन्होंने कहा कि तप का आधा फल समर्पित करता हूँ| इतना कहने पर भी धरती हिली तक नहीं| अंत में उन्होंने कहा कि में अपने सम्पूर्ण जीवन के तप का फल तुम्हे देता हूँ| धरती थोड़ी हिली, हलचल हुई फिर स्थिर हो गयी|
अब वशिष्ठ जी की बारी आई| उन्होंने कहा कि धरती माता अपने सत्संग का निमिषमात्र फल देता हूँ, तुम शेषनाग के मस्तक से हट जाओ| धरती हिली ,गर्जन हुआ और वो सर से उतरकर अलग खड़ी हो गई | शेषनाग जी ने ऋषियों से कहा कि आप लोग स्वयं ही फेसला करले कि सत्संग बड़ा है या तप|