इस शरीर में सबसे बड़ा चोर, सबसे बड़ा दुश्मन मन है। इसको जीतने की, वश में करने की युक्ति किसी के पास नहीं है। बाहरी क्रियाओं से पूजा-पाठ करने से, तीरथ-व्रत करने से यह वश में नहीं होता है। यह चोर और दुश्मन किसका है? सुरत का यह बाहरी क्रियाओं से जीता नहीं जा सकता। यह सहस्रदल कवंल से सुरत के साथ नीचे उतारा गया है। इधर लग गया। आपने अपने लिए बखेड़ा खड़ा कर लिया और शब्द छूट गया।
यह मन दुश्मन भागों का गुलाम हो गया और भोग इन्द्रियों के गुलाम बन गऐ। अब तो महात्मा मिलें और युक्ति बतायें, हम उनके रास्ते पर चलें तब यह धीरे घीरे काबू में किया जा सकता हैं गुरू वचनों के चाबुक से और भजन से यह वश में होता है। यह भी अपना आनन्द जो छोड़ चुका है उसी को खोजता है, उसी के लिए भटकता है पर वह आनन्द इसे बाहर कहीं नहीं मिलता। जब तक यह धुन से नहीं लगेगा चुप नहीं होगा। धुन सुनकर यह मस्त होता है तब चुप होता है।
संतों महात्माओं ने आकर जीवों को समझाया, रास्ता बताया और कहा कि थोड़ा अभ्यास करो, साधन भजन करो, मन को रोको और उसको साथ लेकर सुरत के घाट पर बैठो। जब यह सुरत के घाट पर बैठैगा और बैठते बैठते इसकी इच्छा उधर जाने के लिए जागेगी, धुन को पकड़ेगा तब यह इन्द्रियों के घाट पर नहीं जाऐगा।