वह वस्तु जो बिना किसी चेस्टा के स्वयं आती है वह हमारे भाग्यानुसार है। जो साधक हैं जिनका ध्यान एकाग्र हो चुका है और अन्तर के मण्डलों में आते-जाते हैं वे अपना भाग्य आसानी से जान सकते हैं।
मन जब तक जीवात्मा का साथ नहीं देगा तब तक हम ध्यान-भजन नहीं कर सकते। जब मन केन्द्रित होकर दोनों आँखों के पीछे तीसरे तिल तक चढ़ जाता है तब स्थूल शरीर पर होने वाले बाहरी कर्मों का विशेष प्रभाव मालूम नहीं होता है। इस संसार के सुख हमें प्रफुल्लित नहीं कर सकते हैं और इसके दुःख हमें निराश भी नहीं कर सकते हैं।
प्रारब्ध आँखों के ऊपर अण्ड के अष्टदल कंवल में इकट्ठा रहता है। जब तक उस केन्द्र को पार नहीं किया जाऐ तब तक उसका प्रभाव जोर से महसूस होता है। जब उस केन्द्र को पार कर लिया जाता है और गुरू के सूक्ष्म प्रकाशमय रूप का दर्शन हो जाता है तब प्रारब्ध का प्रभाव नाममात्र के लिए मालूम होता है। फिर मन बलवान हो जाता है और इसकी सहन शक्ति भी बढ़ जाती है।।
किन्तु भाग्य को मिटाया नहीं जा सकता है और न बदला जा सकता है। इसका फल भोगना ही पड़ता है। संचित कर्म त्रिकुटि की चोटी पर जमा होते हैं और जब जीव उस स्थान को पार कर लेता है तब वह निःकर्म को जाता है। इसके नीचे जीव कर्मों के बुरे फल को भोगता है। कर्मों से छुटकारा संतों की शरण में मिलता है। संत-जन कर्म रहित होते हैं क्योंकि उनकी सुरत दसवें द्वार में रहती है जहाँ कर्म काया और मन की लहरें पहुँच नहीं सकती हैं। संत हमें इन कर्मों से छुटकारा पाने का रास्ता बताते हैं।