पहले के युग में ऋषि-मुनि, महात्मा जगह-जगह घूमकर मानव-मानव को धर्म कर्म के संदेश देते रहते थे। लोग उनको मानते थे और धर्म से जुड़े रहते थे। उनकी कमी होने लगी तो विद्वानों ने यह काम शुरू कर दिया। पीढ़ी दर पीढ़ी बहुत दिनों तक ये परम्परा चली। परन्तु कुछ दिनों में वह भी खत्म हो गई। अब जो चाहे वह करे कोई बांधने वाला नहीं।
छोटी-छोटी बातों का ध्यान रखा करो। तुम बड़ी-बड़ी बातों को सोचते हो पर छोटी-छोटी बातों का ध्यान नहीं रखते इसलिए कुछ समझ नहीं पाते हो। तुमको बराबर समझाया जाता है कि जब घ्यान-भजन पर बैठो तो मन को चित्त को सुरत के साथ लगाकर बैठो। मन युगों-युगों से भटक रहा है। तो यह धीरे-धीरे रूकेगा। जब ध्यान-भजन में ये भागे तो इसे लौटा कर लाओ। ऐसा करने लगोगे तो ये रूकने लगेगा। जिसको लगन हाती है भजन करने की वो अपना समय निकाल लेते हैं पर जिन्हें लगन ही नहीं है तो दिन भर बैठे रहें उन्हें कोई चिन्ता नहीं कि समय बेकार गंवा रहे हैं थोड़ा ध्यान-भजन कर लें। कितने लोग नामदान ले जाते हैं अगर सब लोग लगन से लग जाऐं, ध्यान-भजन करने लगें तो काम बन जाऐं लेकिन यहां नामदान लेते हैं उधर गऐ तो इसी संसार में लगे रह जाते हैं फिर कभी होश आई तो किया फिर छोड़ा।
हमारे पास लोग आते हैं कि मैं बीस साल का नामदानी, मैं तीस साल का नामदानी, मैं दस साल का नामदानी। अब जब शरीर थकने लगा दुनियां की चोट लगी तो इधर की याद आई तो अब क्या कर सकते हो ? समय तो खो दिया।
गुरू के घाट पर चलो। वहां सुरत के ऊपर जो पर्दे चढ़े हैं वह उतरवा लो। वहीं सुरत का घाट है। दोनों आंखों के पीछे वह घाट है वहीं पर सुरत कर्मों की चदरिया उतरेगी। जो चतुर साधक होते हैं वो घाट पर बैठते हैं मन बुद्धि को एकाग्र करते हैं। उनकी चदरिया साफ हो जाती है। बाहर सेवा करते हैं जो भी छोटी-बड़ी सेवा मिल जाऐ। सेवा साबुन है। वह सफाई करती है। उससे इन्द्रियों की सफाई होती है। मन, बुद्धि, चित्त की सफाई होती है जब सफाई होती है तो घट में विवेक जागता है, तब उसे सत्-असत् की पहचान होती है। घाट पर खाली बैठना ही नहीं, घाट से पार जाना है। घाट कहते हैं दरवाजा। दरवाजे पर पर्दे जमा हो गऐ हैं इसलिए रास्ता बन्द हो गया।