जो साधक हैं साधना करते हैं और उनके ऊपर जब गुरू की दया हो जाती है तब सिमटाव होने लगता है। आत्मा दोनों आँखों के पीछे बैठी हुई है और उसका प्रकाश पैरों तक फैला हुआ है और भजन-ध्यान के समय प्रकाश ऊपर की तरफ सिमटने लगता है। ऐसा अनुभव साधक को होने लगता है जैसे चींटियां शरीर पर चल रहीं हों। जब सुरत चढ़ती है और शब्द को सुनती है तब धीरे-धीरे खिंचाव होता है। जब मन में उचाट होता है, तड़प हाती है, मोह-ममता के बन्धन ढीले होते हैं तब शब्द सुरत को पकड़ कर खींच लेता है और ऊपर के लोकों की चढ़ाई आरम्भ हो जाती है।
शब्द अथवा नाम के सुनने में इतना आनन्द है, इतनी मस्ती है कि उसे छोड़ने की इच्छा नहीं होती। साधक को यह अनुभव और आभास नहीं है कि जैसे-जैसे वह आगे ऊपर को चलेगा वैसे-वैसे अथाह आनन्द उसको मिलेगा। जैसे-जैसे शब्द सुरत को खींचता है, अपने में मिलाता है तो साधक अनुभव करता है, जो लीलाऐं ऊपर के मण्डलों में देखता है वह लिखने में नहीं आ सकता। गुरू के चरणों में बैठकर जब दिव्य दृष्टि खुल जाती है और आनन्द आने लगता है तब साधक सोचता है कि अब उसे कुछ नहीं चाहिऐ।
ये मानव शरीर दुर्लभ है बार-बार नहीं मिलता। यह काल का देश है मृत्युलोक मण्डल है। इसमें एक बार मनुष्य शरीर का मौका उसने दिया और ये कहा कि इसमें जीते जी अपनी आत्मा को जगा लो और परमात्मा के पास पहुँचा दो। हमें ऐसे साधू संत मिलते नहीं हैं जो हमें रास्ता बताऐं, भेद बताऐं और अगर मिल जाते हैं तो हम शंका करते हैं, प्रीत प्रतीत नहीं करते। ऐसे ही में समय गंवा देते हैं। इसलिए आपको रास्ता मिल गया तो ऐसा काम करो कि जीवन सफल हो जाऐ। जीवन सफल तभी होगा जब लगकर भजन करोगे और यहाँ से निकलकर अपने सच्चे देश सतलोक में पहुँच जाओगे।