शब्द चेतन है, देखता है, सुनता है और सबके साथ अंग संग है। दोनों आँखों के पीछे बैठी हुई सुरत जब भजन में शब्द को सुनती है तो उसे चेतना आती है। गुरू की कृपा से सुरत ऊपर के मण्डलों में चढ़ती जाती है। जब शब्द सीधा ले जाने के लिए आता है तब साधक उसको पकड़ लेता है। इसलिए श्रद्धा, सद्भाव, आस्था, विश्वास और तड़प रखना चाहिए कि जब शब्द आऐ तो हम उसे पकड़ लें। जब इधर से मन उचाट होगा, अभाव आऐगा, मोह-ममता उतरेगी तब साधक शब्द को पकड़ेगा। इसीलिए कोई कोई साधक चढ़ता है। चढ़ने वालों में भी कोई कोई चढ़ जाता है और कोई रूक जाता है। शब्द में बहुत आनन्द है। साधक को यह अनुभव और आभास नहीं है कि जैसे वह आगे चलेगा वैसे वैसे वह अथाह आनन्द को प्राप्त करेगा। जैसे जैसे शब्द सुरत को खींचता है, अपने में मिलाता है तो साधक जो अनुभव करता है, जो लालाऐं देखता है वह लिखने और कहने में नहीं आ सकता। संतों के चरणों में बैठकर तीसरी आँख ,खुल गई, रस और आनन्द आने लगा तो साधक सोचता है कि अब हमें कुछ नहीं चाहिऐ।
इस प्रकार से तुम चिपक जाओ। यह चलने का रास्ता है। जब साधक चलता है तब कहता है कि हमने रास्ता निशाने का देखा। हमारे गुरू महाराज करते थे कि एक रास्ता पांजी का है। वह सीधा रास्ता है। दूसरा रास्ता सड़क का है। गुरू की जिस पर कृपा हो जाऐ वही देख सकता है। गुरू महाराज से पूछा तो उन्होंने बताया कि सुरत से शब्द को पकड़ लो और चले जाओ।