एक बार एक ब्राम्हण किसी पेड़ के नीचे बैठ कर रुपयों को गिन-गिन कर अपनी पगड़ी में रखता जा रहा था. जब वह सब रूपए अपनी पगड़ी में रख चुका, उस समय एक ठग आया और ब्राम्हण के पैरों में गिर पड़ा. ठग बोला कि, ”महाराज आज आप हमारे घर पर भोजन कीजिये क्योंकि एक बालक ने जन्म लिया है. आप चलिए पहले बालक का नाम संस्कार और पूजा आदि करिये.”।
पहले तो ब्राम्हण को कुछ भ्रम-सा हुआ. लेकिन यह सब बातें ऐसे ढंग से कही थी, मानों उसमें झूट किंचित मात्र भी न हो।
ब्राम्हण जब ठग के घर पंहुचा, तब उसने बड़े ही आदर सत्कार के साथ पंगल पर बैठाया, स्वयं भीतर चला गया।
थोड़े ही समय बाद वह ठग थाली सहित आया और उसे ब्राम्हण के सामने रख दिया. ब्राम्हण ने अभी कौर मुंह में रखा ही था कि ठग की पत्नी वहां पहुंची।
ठग कुछ सिर खुजलाता हुआ, “अरे मैंने यहाँ पर कुछ रुपये रखे थे कहीं तुम ने लिया तो नहीं?
सुनते ही ठग कि पत्नी बोल पड़ी, “भला मैं क्यों उठाऊँगी ,इसी ब्राम्हण ने उठाये होंगे? और कोई यहाँ आया भी तो नहीं?” बस फिर क्या था – ठग ने हाथ बढ़ाया और ब्राम्हण की पगड़ी से सब रुपए निकाल लिये।
ब्राम्हण ने भोजन वहीँ का वहीँ छोड दिया और चलने लगा. जब वह जा रहा था तभी उसके कान में यह आवाज़ आई कि, “फिर कब आइएगा महाराज?”
“जब कुछ रूपए इकट्ठे हो जायेंगे,” ब्राम्हण ने जाते-जाते कहा।
ब्राम्हण का सारा रूपया चला गया किंतु इस घटना से ब्राम्हण को एक सबक मिल गया कि बिना अच्छी तरह जाने परखे किसी पर विश्वास नहीं करना चाहिए।