सभी सत्संगी जो सन्त मत की साधना में लगे हैं जानना चाहिऐ कि संतमत के क्या-क्या नियम हैं। उन नियमों को मानने की इसलिए जरूरत पड़ती है कि जिस समाज में हम लोग रहते हैं ओर काम करते हैं उसकी पूरी जानकारी और पूरा ज्ञान हमको हो जाऐ ताकि हम फंसे नहीं। ज्ञानशून्य होने पर तुम फंस जाओगे। सन्तमत में जो प्रेमी साधना करते है वे सन्तमत के नियमों को भली प्रकार से पका लेते हैं, समझ लेते हैं, बुद्धि में जमाऐ रहते हैं ताकि साधन में विध्न बाधा न पड़े, फंसे नहीं और साधन-भजन न छूटे। इसलिए नियमों को जानने की जरूरत है साधक साधना में चलते रहते हैं, समझते रहते हैं नहीं तो साधना शून्य सी रहती है और कुछ देखा नहीं। इतने दिन सत्संग सुनते हो गऐ हर विषय पर, हर भावनाओं का और हर कामों का ऊंचा-नीचा सबकुछ सत्संग में सुनने को मिला। सत्संग को इतनी समझदारी से पीना चाहिए ताकि अजीर्ण न हो। पी ला, घोट लो और पचाओ। सन्तमत की साधना, उपासना भावभक्ति सेवा और प्रेम सब समझ आ जाऐगा। सुरत शब्द की बात भी समझ में आऐगी। जो नहीं समझते हैं वह अधकचरे रह जाते हैं। इसलिए सत्संग की जरूरत पड़ती है ताकि घोर अज्ञानता से निकालकर सीधे साधना में लग सके।
दूसरी बात यह कि सतपुरूष ऐसे दया नहीं करगें और न उनके नीचे के लाकों के ब्रम्ह, पारब्रम्ह और निरंजन ही ऐसे दया करेंगे। ऐसा सिलसिला और वसीला बना है कि जो उधर से आऐ, इधर से जाऐ और वह उनसे मिला है वही दया दे सकता है। जो नहीं मिला है वह दया नहीं दे सकता हैं। सन्त आते हैं तब सतपुरूष की दया होती है वैसे नहीं। इसलिए तो गुरू के लिए जोर दिया गया है। उसके आगे सबने कलम बन्द कर दी।
(शाकाहारी पत्रिका के सौजन्य से: 7 दिसम्बर 1980)