मेरे मन बीच सतगुरु बसते हैं अखियों से रहते दूर।
जरा नैन मूंद कर देखूं तो
दिखता उनका सतनुर।।
मेरे मन बिच सतगुरु बसते हैं
अखियों से रहते दूर
जब से निर्माण हुआँ जग का
तब से मैं ध्यान भुला उनका।
अब याद दिलाई हैं उन ने
है आया ख्याल मुझे रब का।।
मैं सदा रहा अनजान कृपा
फिर भी हो गई भरपूर
मेरे मन बीच सतगुरु बसते हैं
अँखियों से रहते दूर….
उस दाता की दिलदारी का
क्या बयां करू उपकारी का।
उनकी ये दयानत दारी हैं
उस परम पिता भवतारी का।।
मेरी क्या हस्ती कुछ बोलू
कह सके ना साधु सुर।
मेरे दिल बीच सतगुरू बसते हैं
अँखियों से रहते दूर।।
मुझे लख चौरासी में अबके
गुरु आप बड़े अनमोल मिले।
युग युग के गूंगे भावो को
दर्शाने वाले बोल मिले।।
अब तो ना छोड़ू द्वार तेरा
जग जाए तो जाए जरूर।
मेरे दिल बीच सतगुरु बसते हैं
अँखियों से रहते दूर।।
तुम मन मे सदा बसते रहना
ना दूर कहि कभी जाना तुम।
तुम हो तो सतगुरु कायम हम
तुमसे ही जिंदा हर आलम।।
तू परे जन्म मृत्यु से हैं
तेरे आगे मौत मजबूर।
मेरे दिल बीच सतगुरु बसते हैं
अँखियों से रहते दूर।।
तू योगी का महा योगी हैं
सतकाम सदा सहयोगी हैं।
तेरे बचन सदा शुभकारी हैं
कोई रोगी हो या भोगी हैं।।
एक बार चढ़े ना फिर उतरें
हैं ऐसा तेरा सरूर।
मेरे मन बिच सतगुरू बसते हैं
अंखियो से रहते दूर।।
ऐसी लीला दिखलायी हैं
सब होश हवाश छुड़ाया हैं।
मदमस्त अहंकारियों का
सब ज्ञान गुमान उड़ाया हैं।।
तेरे आगे ना चली कभी कोई
करले चाहे लाख फितुर।
मेरे दिल बीच सतगुरु बसते हैं
अँखियों से रहते दूर।।
???? जयगुरूदेव ????
रचनाकार:- प्रेम देशमुख
जयगुरुदेव आवाज़ टीम