कहते हैं भगति तो भाग चली जाई।
इसका मिलना कठिन हैं भाई।।
प्रेम प्रेम हर कोई कहे प्रेम ना चिन्हें कोय।
अष्ट पहर भीगा रहे प्रेम काहावै सोय।।
दोनो चीजे मुश्किल है इतनी मुश्किल की असंभव जैसे, मग़र जिन जिन को पुरा सतगुरु, वक्त का हाक़िम मिला ऊन ऊन लोगों ने लिशाले कायम कर दी और ऐसी मिशाले कायम कर दी जो रहती दुनियां औए दुनियां के बाद तक चेतन अवचेतन और भूमण्डल में गूंजती रहेंगी।
उनकी हम चर्चा, गुणगान तो करते हैं परंतु उनकी करनी,रहनी गहनी को स्वभाव में लाना, जीवन मे उतारना असंभव तो शायद न भी हो मग़र मुश्किल जरूर हैं क्यो की हम गुरु की मौज नही निहारते,गुरु आदेश का मूल्य महत्व नही समझ पाते। मग़र जो समझ जाते हैं वो अविस्मरणीय हो जाते हैं। इतिहास की स्वर्णिम रश्मियों से एक स्मरण मुझे याद आता हैं, जिस महान साधिका ने प्रेम और भक्ति दोनो की परिभाषाओ को और अलंकृत कर दिया उस महान विभूति का था।
***** बीबी बसरी *****
दस गुरुओ की अदम्य अपार लीलाओं की साक्षात दर्शिका, अति विशिष्ट साधक। सुबह से बैठती शाम का होश नही, शाम को बैठी सुबह का होश नही तिथि, वार, कुछ ध्यान नही। अविरल 3-3, 4-4 दिन भजन की बैठक। (वही भजन जो हमको आपको हमारे प्यारे मालिक ने दिया), टूटी फूटी झोपड़ी, जगह जगह से सुराख पड़े, उसपे न खाने का ठिकाना न पीने का ठिकाना, बस भजन भजन। और कुछ था तो वो था, आंखों से बहते अश्रु। कुछ मागने के लिए नही वरण अपने प्रियतम की झलक पाने के लिए।
एक दिन बीबी बसरी भजन पे बैठी थी ,शाम शाम को किसी पड़ोसी की नजर पड़ी। वो जानता था के ये किसी गुरु की शागिर्दी करती हैं, उसे दया आयी, उसने एक गिलास शर्बत का धीरे से बसरी के पास रख और चला गया,सोचा आंख खोलेगी तो पी लेगी। जब तक बसरी ने आंखे खोली तब तक झोपड़ी में अंधेरा काफी हो चुका था । बसरी ने इधर उधर हाथ मारा के शायद कोई रोशनी का इंतजाम करना हो । तो सामने देखती है एक शर्बत का गिलास रखा हैं, वो जान गई गिलास कौन रख गया होगा।बसरी उसे उठाने के लिए हाथ बढाती ही हैं न जाने तब तक कहि से कोई बिल्ली ने छलांग लगाई और शर्बत का गिलास ढुलक गया।
बसरी की आंख से आंसू निकल पड़े ओठ बुदबुदाये,हे मालिक़ 4 दिन की भूखी प्यासी मैं तेरे ध्यान में बैठी पर ये क्या पड़ोसी का शर्बत भी नसीब न हुआँ।ये तेरी केसी दयादारी मालिक!
इतना कह बसरी पुनः भजन पे बैठ गयी, तभी भीतर से आवाज आई, बसरी ये जो तुम्हे प्रेम और भगति की दाँत ढि गयी हैं इसे वापस लेके मैं तुझे सात मुल्कों की जागीरदारी दे देता हूँ, ले कबूल कर* इतना सुनना था के बसरी रो पड़ी और कहने लगी*मालिक! मुझे ब्रह्मांडो कि जागिरी भी कबूल नही, तू और तेरी याद के अलावा संसार का कोई जलवा कबूल नही। मालिक मुझे तू चाहिए तू……।
शायद यह वाकया हमे कहानी लगे।
???? जयगुरूदेव ????
रचनाकार:- प्रेम देशमुख
जयगुरुदेव आवाज़ टीम