प्रार्थना हृदय की आंतरिक पुकार होती है। प्रार्थना का अभिप्राय किसी नाच गाना बजाना से नहीं है। न ही प्रार्थना के कोई ताल लय और बोल होते हैं। बहिर्मुखी प्रार्थना बाहरी जगत के सुनने सुनाने के लिए होती है, उससे कोई आध्यात्मिक लाभ नहीं मिल सकता।
इसलिए जागी हुई सुरत ही अपने मन को साथ लेकर सतगुरु स्वामी से प्रार्थना करती है। हम सब जीवों को भी सतगुरु से प्रार्थना करनी चाहिए, लेकिन कैसे? अंतर्मुखी प्रार्थना, आत्मा के घाट पर बैठकर मन को साथ लेकर जो प्रार्थना अंदर में की जाती है जिसको दूसरा कोई सुन नहीं सकता, वही सच्चे तड़प से की गई प्रार्थना सतगुरु के दरबार में स्वीकार होती है। प्रार्थना बाहर का नहीं अंतर का विषय है। इसलिए हमें सदा अंतर में ही प्रार्थना करनी चाहिए। जयगुरुदेव